संपूर्ण विश्व में बढ़ती
हुई जनसंख्या एक गंभीर समस्या है, बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ भोजन की
आपूर्ति के लिए मानव द्वारा खाद्य उत्पादन की होड़ में अधिक से अधिक उत्पादन
प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों का
उपयोग, प्रकृति के जैविक और अजैविक पदार्थो के बीच आदान-प्रदान के चक्र को
(इकालाजी सिस्टम) प्रभावित करता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब हो
जाती है, साथ ही वातावरण प्रदूषित होता है तथा मनुष्य के स्वास्थ्य में
गिरावट आती है।
प्राचीन काल में मानव
स्वास्थ्य के अनुकुल तथा प्राकृतिक वातावरण के अनुरूप खेती की जाती थी,
जिससे जैविक और अजैविक पदार्थो के बीच आदान-प्रदान का चक्र Ecological
system निरन्तर चलता रहा था, जिसके फलस्वरूप जल, भूमि, वायु तथा वातावरण
प्रदूषित नहीं होता था। भारत वर्ष में प्राचीन काल से कृषि के साथ-साथ गौ
पालन किया जाता था, जिसके प्रमाण हमारे ग्रांथों में प्रभु कृष्ण और बलराम
हैं जिन्हें हम गोपाल एवं हलधर के नाम से संबोधित करते हैं अर्थात कृषि एवं
गोपालन संयुक्त रूप से अत्याधिक लाभदायी था, जोकि प्राणी मात्र व वातावरण
के लिए अत्यन्त उपयोगी था। परन्तु बदलते परिवेश में गोपालन धीरे-धीरे कम हो
गया तथा कृषि में तरह-तरह की रसायनिक खादों व कीटनाशकों का प्रयोग हो रहा
है जिसके फलस्वरूप जैविक और अजैविक पदार्थो के चक्र का संतुलन बिगड़ता जा
रहा है, और वातावरण प्रदूषित होकर, मानव जाति के स्वास्थ्य को प्रभावित कर
रहा है। अब हम रसायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों के उपयोग के स्थान पर,
जैविक खादों एवं दवाईयों का उपयोग कर, अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त कर
सकते हैं जिससे भूमि, जल एवं वातावरण शुध्द रहेगा और मनुष्य एवं प्रत्येक
जीवधारी स्वस्थ रहेंगे।
भारत वर्ष में ग्रामीण
अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि है और कृषकों की मुख्य आय का साधन खेती
है। हरित क्रांति के समय से बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए एवं आय की
दृष्टि से उत्पादन बढ़ाना आवश्यक है अधिक उत्पादन के लिये खेती में अधिक
मात्रा में रासायनिक उर्वरको एवं कीटनाशक का उपयोग करना पड़ता है जिससे
सीमान्य व छोटे कृषक के पास कम जोत मेें अत्यधिक लागत लग रही है और जल,
भूमि, वायु और वातावरण भी प्रदूषित हो रहा है साथ ही खाद्य पदार्थ भी
जहरीले हो रहे हैे। इसलिए इस प्रकार की उपरोक्त सभी समस्याओं से निपटने के
लिये गत वर्षो से निरन्तर टिकाऊ खेती के सिध्दान्त पर खेती करने की सिफारिश
की गई, जिसे प्रदेश के कृषि विभाग ने इस विशेष प्रकार की खेती को अपनाने
के लिए, बढ़ावा दिया जिसे हम ''जैविक खेती'' के नाम से जानते हेै। भारत
सरकार भी इस खेती को अपनाने के लिए प्रचार-प्रसार कर रही है।
म.प्र. में सर्वप्रथम
2001-02 मेंं जैविक खेती का अन्दोलन चलाकर प्रत्येक जिले के प्रत्येक विकास
खण्ड के एक गांव मे जैविक खेती प्रारम्भ कि गई और इन गांवों को ''जैविक
गांव'' का नाम दिया गया । इस प्रकार प्रथम वर्ष में कुल 313 ग्रामों में
जैविक खेती की शुरूआत हुई। इसके बाद 2002-03 में द्वितीय वर्ष मे प्रत्येक
जिले के प्रत्येक विकासखण्ड के दो-दो गांव, वर्ष 2003-04 में 2-2 गांव
अर्थात 1565 ग्रामों मे जैविक खेती की गई। वर्ष 2006-07 में पुन: प्रत्येक
विकासखण्ड में 5-5 गांव चयन किये गये। इस प्रकार प्रदेश के 3130 ग्रामों
जैविक खेती का कार्यक्रम लिया जा रहा है। मई 2002 में राष्ट्रीय स्तर का
कृषि विभाग के तत्वाधान में भोपाल में जैविक खेती पर सेमीनार आयोजित किया
गया जिसमें राष्ट्रीय विशेषज्ञों एवं जैविक खेती करने वाले अनुभवी कृषकों
द्वारा भाग लिया गया जिसमें जैविक खेती अपनाने हेतु प्रोत्साहित किया गया।
प्रदेश के प्रत्येक जिले में जैविक खेती के प्रचार-प्रसार हेतु चलित झांकी,
पोस्टर्स, बेनर्स, साहित्य, एकल नाटक, कठपुतली प्रदर्शन जैविक हाट एवं
विशेषज्ञों द्वारा जैविक खेती पर उद्बोधन आदि के माध्यम से प्रचार-प्रसार
किया जाकर कृषकों में जन जाग्रति फैलाई जा रही है।
जैविक खेती से लाभ
कृषकों की दृष्टि से लाभ
भूमि की उपजाऊ
क्षमता में वृध्दि हो जाती है। सिंचाई अंतराल में वृध्दि होती है ।
रासायनिक खाद पर निर्भरता कम होने से कास्त लागत में कमी आती है। फसलों की
उत्पादकता में वृध्दि।
मिट्टी की दृष्टि से
जैविक खाद के
उपयोग करने से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है। भूमि की जल धारण क्षमता
बढ़ती हैं। भूमि से पानी का वाष्पीकरण कम होगा।
पर्यावरण की दृष्टि से
भूमि के जल स्तर
में वृध्दि होती हैं। मिट्टी खाद पदार्थ और जमीन में पानी के माध्यम से
होने वाले प्रदूषण मे कमी आती है। कचरे का उपयोग, खाद बनाने में, होने से
बीमारियों में कमी आती है । फसल उत्पादन की लागत में कमी एवं आय में वृध्दि
अंतरराष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद की गुणवत्ता का खरा
उतरना।
जैविक खेती, की विधि
रासायनिक खेती की विधि की तुलना में बराबर या अधिक उत्पादन देती है अर्थात
जैविक खेती मृदा की उर्वरता एवं कृषकों की उत्पादकता बढ़ाने में पूर्णत:
सहायक है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में जैविक खेती की विधि और भी अधिक
लाभदायक है । जैविक विधि द्वारा खेती करने से उत्पादन की लागत तो कम होती
ही है इसके साथ ही कृषक भाइयों को आय अधिक प्राप्त होती है तथा
अंतराष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद अधिक खरे उतरते हैं। जिसके
फलस्वरूप सामान्य उत्पादन की अपेक्षा में कृषक भाई अधिक लाभ प्राप्त कर
सकते हैं। आधुनिक समय में निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या, पर्यावरण प्रदूषण,
भूमि की उर्वरा शक्ति का संरक्षण एवं मानव स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती की
राह अत्यन्त लाभदायक है । मानव जीवन के सवर्ांगीण विकास के लिए नितान्त
आवश्यक है कि प्राकृतिक संसाधन प्रदूषित न हों, शुध्द वातावरण रहे एवं
पौष्टिक आहार मिलता रहे, इसके लिये हमें जैविक खेती की कृषि पध्दतियाँ को
अपनाना होगा जोकि हमारे नैसर्गिक संसाधनों एवं मानवीय पर्यावरण को प्रदूषित
किये बगैर समस्त जनमानस को खाद्य सामग्री उपलब्ध करा सकेगी तथा हमें
खुशहाल जीने की राह दिखा सकेगी।
जैविक खेती हेतु प्रमुख जैविक खाद एवं दवाईयाँ :-
जैविक खाद
नाडेप
बायोगैस स्लरी
वर्मी कम्पोस्ट
हरी खाद
जैव उर्वरक (कल्चर)
गोबर की खाद
नाडेप फास्फो कम्पोस्ट
पिट कम्पोस्ट (इंदौर विधि)
मुर्गी का खाद
जैविक खाद तैयार करने के कृषकों के अन्य अनुभव
भभूत अमतपानी
अमृत संजीवनी
मटका खाद
जैविक पध्दति द्वारा व्याधि नियंत्रण के कृषकों के अनुभव
गौ-मूत्र
नीम- पत्ताी का घोल/निबोली/खली
मट्ठा
मिर्च/लहसु
लकड़ी की राख
नीम व करंज खली
जैविक खाद तैयार करने की विधियाँ
नाडेप
इस विधि को ग्राम
पूसर जिला यवतमाल महाराष्ट के नारायम देवराव पण्डरी पाण्डे द्वारा विकसित
की गई है। इसलिये इसे नाडेप कहते हैं।
इस विधि में कम से कम गोबर का उपयोग करके अधिक मात्रा में अच्छी खाद तैयार
की जा सकती है। टांके भरने के लिये गोबर, कचरा (बायोमास) और बारीक छनी हुई
मिटटी की आवश्यकता रहती हैं। जीवांश को 90 से 120 दिन पकाने में वायु संचार
प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है। इसके द्वारा उत्पादित की गई खाद में
प्रमुख रूप से 0.5 से 1.5% नत्रजन, 0.5 से 0.9% स्फुर एवं 1.2 से 1.4%
पोटाश के अलावा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व भी पाये जाते हैं।
निम्नानुसार विभिन्न प्रकार के नाडेप टाकों से नाडेप कम्पोस्ट तैयार किया
जा सकता है ।
पक्का नाडेप
पक्का नाडेप ईटों
के द्वारा बनाया जाता है । नाडेप टांके का आकार 10 फीट लंबा, 6 फीट चौड़ा और
3 फीट ऊंचा या 12*5*3 फीट का बनाया जाता है। ईटों को जोडते समय तीसरे,
छठवे एवं नवें रद्दे में मधुमक्खी के छत्ते के समान 6''-7'' के ब्लाक/छेद
छोड़ दिये जाते है जिससे टांके के अन्दर रखे पदार्थ को बाहृय वायु मिलती
रहे। इससे एक वर्ष में एक ही टांके से तीन बार खाद तैयार किया जा सकता है ।
कच्चा नाडेप (भू नाडेप)
भू-नाडेप/ कच्चा
नाडेप परम्परागत तरीके के विपरित बिना गड्डा खोदे जमीन पर एक निश्चित आकार
(12फीट*5फीट*3फीट अथवा 10फीट*6फीट*3फीट) का लेआउट देकर व्यवस्थित ढ़ेर बनाया
जाता है । इसकी भराई नाडेप टांके अनुसार की जाती है। इस प्रकार लगभग 5 से 6
फीट तक सामग्री जम जाने के बाद एक आयताकार व व्यवस्थित ढेर को चारों ओर से
गीली मिट्टी व गोबर से लीप कर बंदकर कर दिया जाता है। बंद करने के दूसरे
अथवा तीसरे दिन जब गीली मिट्टी कुछ कड़ी हो जाये तब गोलाकार अथवा आयताकार
टीन के डिब्बे से ढेर की लंबाई व चौड़ाई में 9-9 इंच के अंतर पर 7-8 इंच के
गहरे छिद्र बनाये जावे। छिद्रो से हवा का अवागमन होता है और आवश्यकता पड़ने
पर पानी भी डाला जा सकता है, ताकि बायोमास में पर्याप्त नमी रहे और विघटन
क्रिया अच्छी तरह से हो सके। इस तरह से भरा बायोमास 3 से 4 माह के भीतर
भली-भांति पक जाता है तथा अच्छी तरी पकी हुई, भुरभुरी र्दुगंध रहित भुरे
रंग की उत्तम गुणवत्ता की जैविक खाद तैयार हो जाती है ।
टटिया नाडेप
टटिया नाडेप भी
भू-नाडेप की तरह ही होते हैं, किन्तु इसमें आयताकार व व्यस्थित ढेर को
चारों और से लेप देने की जगह इसे बांस बेशरम की लकड़ी एवं तुअर के डंठल आदि
से टटिया बनाकर चारों ओर से बंद कर दिया जाता हैं। इसमें हवा का आवगमन
स्वाभाविक रूप से छेद होने के कारण अपने आप ही होता रहता हैं।
नाडेप फास्फो कम्पोस्ट
यह नाडेप के समान
ही कम्पोस्ट खाद तैयार करने की विधि है । अंतर केवल इतना है कि इसमें अन्य
सामग्री के साथ राक फास्फेट का उपयोग किया जाता है जिसके फलस्वरूप कम्पोट
में फास्फेट की मात्रा बढ़ जाती है।
प्रत्येक परत के उपर 12 से 15 किलो रांक फास्फेट की परत बिछाई जाती है शेष
परत दर परत पक्के नाडेप टांके अनुसार ही टांके की भराई की जाती हैें और
गोबर मिट्टी से लीप कर सील कर दिया जाता है । एक टांके में करीब 150 किलो
राक फसस्फेट की आवश्यकता होंगी।
पिट कम्पोस्
इस विधि को
सर्वप्रथम 1931 में अलबर्ट हावर्ड और यशवंत बाड ने इन्दौर में विकसित की थी
अत: इसे इंदौर विधि के नाम से भी जाना जाता है इस पध्दति में कम से कम
9x5x3 फीट व अधिक से अधिक 20*5*3 फीट आकार के गङ्ढे बनाए जाते हैं। इन
गङ्ढो को 3 से 6 भागों में बांट दिया जाता है इस प्रकार प्रत्येक हिस्से का
आकार 3*5*3 फीट से कम नहीं होना चाहिये। प्रत्येक हिस्से को अलग अलग भरा
जावे एवं अंतिम हिस्सा खाद पलटने के लिए खाली छोड़ा जावें
नाडेप टांका कम्पोस्ट खाद तैयार करने की विधि
वानस्पतिक बैकार पदार्थ जैसे सूखे पत्तो, छिलके, डंठल, टहनिया, जड़े आदि 1400 से 1600 किलो, इसमें प्लास्टिक कांच एवं पत्थर नहीं रहे।
गोबर 100 से 120 किलो (8 से 10 टोकरी) गोबर गैस से निकली स्लरी भी ली जा सकती है ।
सूखी छनी हुई खेत या नाले की मिट्टी 600 से 800 किलो (120 टोकरी) गो-मूत्र से सनी मिट्टी विशेष लाभदायी होती है।
साधारणतया 1500 से 2000 लीटर पानी, मौसम के अनुसार पानी की मात्रा कम या ज्यादा लग सकती है।
नाडेप बनाने की विधि
टांका भरने की विधि :-
खाद सामग्री पूरी तरह एकत्रित करने के बाद नीचे बताए क्रम अनुसार ही टांका
भरें। अचार डालने की तर्ज पर ही नाडेप पध्दति खाद सामग्री एक ही दिन में
या ज्यादा से ज्यादा 48 घंटे में पूरी तरह से टांका में भरकर सील कर दें।
प्रथम भराई :- टांका भरने से पहले टांके के अंदर की दीवार एवं फर्श गोबर व पानी के घोल से अच्छा गीला कर दें।
पहली परत :-
वानस्पतिक पदार्थ कचरा, डंठल, टहनियां, पत्तिायाँ आदि पूरे टांके में छ:
इंच की ऊचाई तक भर दें। इस 30 घनफीट में 100 से 110 किलो वानस्पतिक सामग्री
आएगी। इस परत में 3 से 4 प्रतिशत नीम या पलाश की हरी पत्तिायाँ मिलाना
लाभप्रद होगा। जिससे दीमक पर नियंत्रण होगा।
दूसरी परत :-
गोबर का घोल 125 से 150 लीटर पानी में 4 किलो गोबर मिलाकर पहली परत के उपर
इस तरह छिड़कें कि पूरी वानस्पतिक सामग्री अच्छी तरह भीग जाए। गर्मी में
पानी की मात्रा अधिक रखें। यदि बायोगैस की स्लरी उपयोग करें तो 10 लीटर
स्लरी को 125 से 150 लीटर पानी में घोल कर छिड़कें।
तीसरी परत :-
भीगी हुई दूसरी पतर के उपर, साफ छनी हुई मिट्टी 50 से 60 किलो के लगभग
समान रूप से बिछा दें। परतों के इसी क्रम में टांके को उसके मुँह से 1.5
फीट उपर तक झोपड़ीनुमा आकार से भरें। सामान्यत: 11-12 परतों में टांका भर
जावेगा। टांका भरने के बाद टांका सील करने के लिए 3 इंच मिट्टी (400 से 500
किलो) की परत जमा कर गोबर से लीप दें। इस पर दरारें पड़े तो उन्हे पुन:
गोबर से लीप दें। द्वितीय भराई :- 15-20 दिन बाद टांके में भरी सामग्री
सिकुड़ कर 8-9 इंच नीचे चली जावेगी तब पहली भराई की तरह ही वानस्पतिक
पदार्थ, गोबर का घोल एवं छनी मिट्टी की परतों से टांके को उनके मुँह से 1.5
फीट उपर तक भरकर पहले भराव के समान ही सील कर लीप दें।
सावधानियां :- नाडेप
कम्पोस्ट को पकने के लिये 90 से 120 दिन लगते है। इस दौरान नमी बनी रहने
के लिए एवं दरारे बंद करने के लिए गोबर पानी का घोल छिड़कते रहें व दरारें न
पड़ने दें। घास आदि उगे तो उसे उखाड़ दे व नमी कायम रखें। कड़ी धूप हो तो
घास-फूस से छाया कर दें।
खाद की परिपक्वता :- 3-4
महीने में खाद गहरे भूरे रंग की बन जाती है और दुर्गंध समाप्त होकर अच्छी
खुशबू आती है। खाद सूखना नहीं चाहिये। इस खाद को एक फीट में 35 तार वाली
चलनी से छान लेना चाहिये और फिर उपयोग में लाना चाहिये। छलनी के उपर से
निकला अधपका कच्चा खाद फिर से खाद बनाने के काम में लेना चाहिये । एक टांके
से निकला खाद 6-7 एकड़ भूमि को दिया जा सकता है। एक टांके से 160 से 175 घन
फीट छना खाद व 40 से 50 घन फीट कच्चा माल मिलेगा। मतलब एक टांके से 3 टन
(लगभग 6 बैलगाड़ी) अच्छा पका खाद मिलता है। नाडेप टांका विधि से कम से कम
गोबर में अधिकाधिक मात्रा में अच्छी गुणवत्ताा का खाद तैयार होता है। मात्र
एक गाय के साल भर के गोबर से 10 टन खाद मिलने की संभावना है। जिसमें
नत्रजन 0.5 से 1.5 प्रतिशत स्फूर 0.5 से 0.9 प्रतिशत तथा पोटाश 1.2 से 1.4
प्रतिशत होता है।
बायोगैस स्लरी
बायोगैस संयंत्र में
गोबर गैस की पाचन क्रिया के बाद 25 प्रतिशत ठोस पदार्थ रूपान्तरण गैस के
रूप में होता है और 75 प्रतिशत ठोस पदार्थ का रूपान्तरण खाद के रूप में
होता हैं। जिसे बायोगैस स्लरी कहा जाता हैं दो घनमीटर के बायोगैस संयंत्र
में 50 किलोग्राम प्रतिदिन या 18.25 टन गोबर एक वर्ष में डाला जाता है। उस
गोबर में 80 प्रतिशत नमी युक्त करीब 10 टन बायोगैस स्लेरी का खाद प्राप्त
होता हैं। ये खेती के लिये अति उत्तम खाद होता है। इसमें 1.5 से 2 %
नत्रजन, 1 % स्फुर एवं 1 % पोटाश होता हैं।
बायोगैस संयंत्र में
गोबर गैस की पाचन क्रिया के बाद 20 प्रतिशत नाइट्रोजन अमोनियम नाइट्रेट के
रूप में होता है। अत: यदि इसका तुरंत उपयोग खेत में सिंचाई नाली के माध्यम
से किया जाये तो इसका लाभ रासायनिक खाद की तरह फसल पर तुरंत होता है और
उत्पादन में 10-20 प्रतिशत बढ़त हो जाती है। स्लरी के खाद में नत्रजन, स्फुर
एवं पोटाश के अतिरिक्त सूक्ष्म पोषण तत्व एवं ह्यूमस भी होता हैं जिससे
मिट्टी की संरचना में सुधार होता है तथा जल धारण क्षमता बढ़ती है। सूखी खाद
असिंचित खेती में 5 टन एवं सिंचित खेती में 10 टन प्रति हैक्टर की आवश्यकता
होगी। ताजी गोबर गैस स्लरी सिंचित खेती में 3-4 टन प्रति हैक्टर में
लगेगी। सूखी खाद का उपयोग अन्तिम बखरनी के समय एवं ताजी स्लरी का उपयोग
सिंचाई के दौरान करें। स्लरी के उपयोग से फसलों को तीन वर्ष तक पोषक तत्व
धीरे-धीरे उपलब्ध होते रहते हैं।
वर्मी कम्पोस्ट
केंचुआ कृषकों का
मित्र एवं भूमि की आंत कहा जाता हैं। यह सेन्द्रिय पदार्थ ह्यूमस व मिट्टी
को एकसार करके जमीन के अंदर अन्य परतों में फैलाता हैं । इससे जमीन पोली
होती है व हवा का आवागमन बढ़ जाता है तथा जलधारण क्षमता में बढ़ोतरी होती है।
केंचुओं के पेट में जो रसायनिक क्रिया व सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रिया होती
है, जिससे भूमि में पाये जाने वाले नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश एवं अन्य
सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता बढ़ती हैं। वर्मी कम्पोस्ट में बदबू नहीं होती
है और मक्खी एवं मच्छर नहीं बढ़ते है तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता है।
तापमान नियंत्रित रहने से जीवाणु क्रियाशील तथा सक्रिय रहते हैं। वर्मी
कम्पोस्ट डेढ़ से दो माह के अंदर तैयार हो जाता है। इसमें 2.5 से 3% नत्रजन,
1.5 से 2% स्फुर तथा 1.5 से 2% पोटाश पाया जाता है।
तैयार करने की विधि:
कचरे से खाद तैयार
किया जाना है उसमें से कांच-पत्थर, धातु के टुकड़े अच्छी तरह अलग कर इसके
पश्चात वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने के लिये 10x4 फीट का प्लेटफार्म जमीन से 6
से 12 इंच तक ऊंचा तैयार किया जाता है। इस प्लेटफार्म के ऊपर 2 रद्दे ईट
के जोडे जाते हैं तथा प्लेटफार्म के ऊपर छाया हेतु झोपड़ी बनाई जाती हैं
प्लेटफार्म के ऊपर सूखा चारा, 3-4 क्विंटल गोबर की खाद तथा 7-8 क्विंटल
कूड़ाकरकट (गार्वेज) बिछाकर झोपड़ीनुमा आकार देकर अधपका खाद तैयार हो जाता है
जिसकी 10-15 दिन तक झारे से सिंचाई करते हैं जिससे कि अधपके खाद का तापमान
कम हो जाए। इसके पश्चात 100 वर्ग फीट में 10 हजार केंचुए के हिसाब से छोड़े
जाते हैं। केचुए छोड़ने के पश्चात् टांके को जूट के बोरे से ढंक दिया जाता
हैं, और 4 दिन तक झारे से सिंचाई करते रहते हैं ताकि 45-50 प्रतिशत नमी बनी
रहें। ध्यान रखे अधिक गीलापन रहने से हवा अवरूध्द हो जावेगी ओर सूक्ष्म
जीवाणु तथा केंचुऐ मर जावेगें या कार्य नही कर पायेंगे।
45 दिन के पश्चात
सिंचाई करना बंद कर दिया जाता है और जूट के बोरों को हटा दिया जाता है।
बोरों को हटाने के बाद ऊपर का खाद सूख जाता है तथा केंचुए नीचे नमी में चले
जाते है। तब ऊपर की सूखी हुई वर्मी कम्पोस्ट को अलग कर लेते हैं। इसके 4-5
दिन पश्चात पुन: टांके की ऊपरी खाद सूख जाती है और सूखी हुई खाद को ऊपर से
अलग कर लेते हैं इस तरह 3-4 बार में पूरी खाद टांके से अलग हो जाती है और
आखरी में केंचुए बच जाते हैं जिनकी संख्या 2 माह में टांके में, डाले गये
केंचुओं की संख्या से, दोगुनी हो जाती हैं ध्यान रखें कि खाद हाथ से
निकालें गैंती, कुदाल या खुरपी का प्रयोग न करें। टांकें से निकाले गये खाद
को छाया में सुखा कर तथा छानकर छायादार स्थान में भण्डारित किया जाता है ।
वर्मी कम्पोस्ट की मात्रा गमलों में 100 ग्राम, एक वर्ष के पौधों में एक
किलोग्राम तथा फसल में 6-8 क्विंटल प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है। वर्मी
वॉश का उपयोग करते हुए प्लेटफार्म पर दो निकास नालिया बना देना अच्छा होगा
ताकि वर्मी वॉश को एकत्रित किया जा सकें
केंचुए खाद के गुण
इसमें नत्रजन,
स्फुर, पोटाश के साथ अति आवश्यक सूक्ष्म कैल्श्यिम, मैग्नीशियम, तांबा,
लोहा, जस्ता और मोलिवड्नम तथा बहुत अधिक मात्रा में जैविक कार्बन पाया जाता
है ।
केंचुएँ के खाद का उपयोग भूमि, पर्यावरण एवं अधिक उत्पादन की दृष्टि से लाभदायी है।
हरी खाद
मिट्टी की उर्वरा
शक्ति जीवाणुओं की मात्रा एवं क्रियाशीलता पर निर्भर रहती है क्योंकि बहुत
सी रासायनिक क्रियाओं के लिए सूक्ष्म जीवाणुओं की आवश्यकता रहती है। जीवित व
सक्रिय मिट्टी वही कहलाती है जिसमें अधिक से अधिक जीवांश हो। जीवाणुओं का
भोजन प्राय: कार्बनिक पदार्थ ही होते है और इनकी अधिकता से मिट्टी की
उर्वरा शक्ति पर प्रभाव पड़ता है। अर्थात केवल जीवाणुओं से मिट्टी की उर्वरा
शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। मिट्ट की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने की क्रियाओं
में हरी खाद प्रमुख है। इस क्रिया में वानस्पतिक सामग्री को अधिकांशत: हरे
दलहनी पौधों को उसी खेत में उगाकर जुताई कर मिट्टी में मिला देते है। हरी
खाद हेतु मुख्य रूप से सन, ढेंचा, लाबिया, उड्द, मूंग इत्यादि फसलों का
उपयोग किया जाता है।
भभूत अमृत पानी
अमृत पानी तैयार
करने के लिए के लिए 10 किलोग्राम गाय का ताजा गोबर 250 ग्राम नौनी घी, 500
ग्राम शहद और 200 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। सर्वप्रथम 200 लीटर के
ड्रम में 10 किलोग्राम गाय का ताजा गोबर डालें उसमें 250 ग्राम नौनी घी,
500 ग्राम शहद को डालकर अच्छी तरह मिलायें# इसके पश्चात ड्रम को पूरा पानी
से भर ले तथा एक लकड़ी की सहायता से घोल तैयार करें इस घोल को जब फसल 15 से
20 दिन की हो जावे तब कतार के बीच में 3 से 4 बार प्रयोग करें# इसके प्रयोग
के समय मृदा में नमी का होना अति आवश्यक है। अमृत पानी के प्रयोग के पूर्व
15 किलोग्राम बरगद के नीचे की मिट्टी एक एकड़ में समान रूप से बिखेर दें।
अमृत संजीवनी
एक एकड़ हेतु अमृत
संजीवनी तैयार करने के लिये सामग्री में 3 किलोग्राम यूरिया, 3 किलोग्राम
सुपर फास्फेट एवं 1 किलोग्राम पोटाश तथा 2 किलोग्राम मूंगफली की खली, 80
किलोग्राम गोबर एवं 200 लीटर पानी की आवश्यकता होती है । इसकों तैयार करने
के लिए उक्त सामग्री को एक ड्रम में डालकर अच्छी तरह मिला दें और ड्रम के
ढक्कन को बंद कर 48 घंटे के लिए छोड़ दें तथा प्रयोग के समय ड्रम को पूरा
पानी से भर दे । जब खेत में पर्याप्त नमी हो तब बोनी के पूर्व इसे समान रूप
से एक एकड़ में छिड़क दे। खड़ी फसल में जब फसल 15-20 दिन की हो जावे तब कतार
के बीज में 3-4 बार 15 दिन के अंतर पर छिड़के यथा संभव पत्तों को घोल के
संपर्क से बचाये।
अग्निहोत्र भस्म
अग्निहोत्र भस्म
उच्चारण पर्यावरण की शुध्दि की वैदिक पध्दति है। खेत में, गांव में, घर में
तथा शहर में पर्यावरण में स्वच्छता बनाये रखकर सूर्योदय व सूर्यास्त के
समय मिट्टी तथा तांबे के पात्र में गाय के गोबर के कंडे में अग्नि
प्रज्जवलित कर अखंड अक्षत (बिना टूटे चावल) चावल के 8-10 दानों को गाय के
घी में मिलाकर हाथ अंगूठे, मध्य अनामिका व छोटी अंगुली से अग्निहोत्री
मंत्र उच्चारण के साथ स्वाहा: शब्द के साथ आहुति दी जाती है।
अग्निहोत्र मंत्र
सूर्योदय के समय-सूर्याय स्वाहा, सूर्याय इदम् न मम् (प्रथम आहूति के समय)
प्रजापतये स्वाहा,प्रजापतये इदम् न मम्(द्वितीय आहूति के समय)
सूर्यास्त के समय-अग्नेय स्वाहा, अग्नेय इदम् न मम् (प्रथम आहूति के समय)
प्रजापतये स्वाहा, प्रजापतये इदम् न मम्(द्वितीय आहूति के समय)
खेतों पर
अग्निहोत्र मंत्र, पौधों में कीट-व्याधि निरोधकता के साथ भूमि में उपलब्ध
पोषण-जैव कार्बन-ऊर्जा का सक्षम उपयोग कर अधिक उत्पादन हेतु प्रेरित करता
है।
जैविक पध्दति द्वारा जैविक कीट एवं व्याधि नियंत्रण के कृषकों के अनुभव
जैविक कीट एवं व्याधि नियंजक के नुस्खे विभिन्न कृषकों के अनुभव के आधार पर तैयार कर प्रयोग किये गये हैं, जो कि इस प्रकार हैं-
गौ-मूत्र
गौमूत्र, कांच की शीशी
में भरकर धूप में रख सकते हैं। जितना पुराना गौमूत्र होगा उतना अधिक
असरकारी होगा । 12-15 मि.मी. गौमूत्र प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रेयर
पंप से फसलों में बुआई के 15 दिन बाद, प्रत्येक 10 दिवस में छिड़काव करने से
फसलों में रोग एवं कीड़ों में प्रतिरोधी क्षमता विकसित होती है जिससे
प्रकोप की संभावना कम रहती है।
नीम के उत्पाद
नीम भारतीय मूल का
पौघा है, जिसे समूल ही वैद्य के रूप में मान्यता प्राप्त है। इससे मनुष्य
के लिए उपयोगी औषधियां तैयार की जाती हैं तथा इसके उत्पाद फसल संरक्षण के
लिये अत्यन्त उपयोगी हैं।
नीम पत्ती का घोल
नीम की 10-12 किलो
पत्तियॉ, 200 लीटर पानी में 4 दिन तक भिगोंयें। पानी हरा पीला होने पर इसे
छानकर, एक एकड़ की फसल पर छिड़काव करने से इल्ली की रोकथाम होती है। इस औषधि
की तीव्रता को बढ़ाने हेतु बेसरम, धतूरा, तम्बाकू आदि के पत्तों को मिलाकर
काड़ा बनाने से औषधि की तीव्रता बढ़ जाती है और यह दवा कई प्रकार के कीड़ों को
नष्ट करने में यह दवा उपयोगी सिध्द है।
नीम की निबोली नीम
की निबोली 2 किलो लेकर महीन पीस लें इसमें 2 लीटर ताजा गौ मूत्र मिला लें।
इसमें 10 किलो छांछ मिलाकर 4 दिन रखें और 200 लीटर पानी मिलाकर खेतों में
फसल पर छिड़काव करें।
नीम की खली
जमीन में दीमक तथा
व्हाइट ग्रब एवं अन्य कीटों की इल्लियॉ तथा प्यूपा को नष्ट करने तथा भूमि
जनित रोग विल्ट आदि के रोकथाम के लिये किया जा सकता है। 6-8 क्विंटल प्रति
एकड़ की दर से अंतिम बखरनी करते समय कूटकर बारीक खेम में मिलावें।
आइपोमिया (बेशरम) पत्ती घोल
आइपोमिया की 10-12
किलो पत्तियॉ, 200 लीटर पानी में 4 दिन तक भिगोंये। पत्तियों का अर्क उतरने
पर इसे छानकर एक एकड़ की फसल पर छिड़काव करें इससे कीटों का नियंत्रण होता
है।
मटठा
मट्ठा, छाछ, मही आदि
नाम से जाना जाने वाला तत्व मनुष्य को अनेक प्रकार से गुणकारी है और इसका
उपयोग फसलों मे कीट व्याधि के उपचार के लिये लाभप्रद हैं। मिर्ची, टमाटर
आदि जिन फसलों में चुर्रामुर्रा या कुकड़ा रोग आता है, उसके रोकथाम हेतु एक
मटके में छाछ डाकर उसका मुॅह पोलीथिन से बांध दे एवं 30-45 दिन तक उसे
मिट्टी में गाड़ दें। इसके पश्चात् छिड़काव करने से कीट एवं रोगों से बचत
होती । 100-150 मि.ली. छाछ 15 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करने से
कीट-व्याधि का नियंत्रण होता है। यह उपचार सस्ता, सुलभ, लाभकारी होने से
कृषकों मे लोकप्रिय है।
मिर्च/लहसुन
आधा किलो हरी मिर्च,
आधा किलो लहसुन पीसकर चटनी बनाकर पानी में घोल बनायें इसे छानकर 100 लीटर
पानी में घोलकर, फसल पर छिड़काव करें। 100 ग्राम साबुन पावडर भी मिलावे।
जिससे पौधों पर घोल चिपक सके। इसके छिड़काव करने से कीटों का नियंत्रण होता
है।
लकड़ी की राख
1 किलो राख में 10
मि.ली. मिट्टी का तेल डालकर पाउडर का छिड़काव 25 किलो प्रति हेक्टर की दर से
करने पर एफिड्स एवं पंपकिन बीटल का नियंत्रण हो जाता है ।
ट्राईकोडर्मा
ट्राईकोडर्मा एक ऐसा जैविक फफूंद नाशक है जो पौधों में मृदा एवं बीज जनित बीमारियों को नियंत्रित करता है।
बीजोपचार में 5-6
ग्राम प्रति किलोगाम बीज की दर से उपयोग किया जाता है। मृदा उपचार में 1
किलोग्राम ट्राईकोडर्मा को 100 किलोग्राम अच्छी सड़ी हुई खाद में मिलाकर
अंतिम बखरनी के समय प्रयोग करें। कटिंग व जड़ उपचार- 200 ग्राम ट्राईकोडर्मा
को 15-20 लीटर पानी में मिलाये और इस घोल में 10 मिनिट तक रोपण करने वाले
पौधों की जड़ों एवं कटिंग को उपचारित करें।
3 ग्राम ट्राईकोडर्मा
प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10-15 दिन के अंतर पर खड़ी फसल पर 3-4 बार
छिड़काव करने से वायुजनित रोग का नियंत्रण होता है।
अन्य नुस्खे
इल्ली नियंत्रण
5 लीटर देशी गाये के
मट्ठे में 5 किलो नीम के पत्ते डालकर 10 दिन तक सड़ायें, बाद में नीम की
पत्तियों को निचोड़ लें। इस नीमयुक्त मिश्रण को छानकर 150 लीटर पानी में घोल
बनाकर प्रति एकड़ के मान से समान रूप से फसल पर छिड़काव करें। इससे इल्ली व
माहू का प्रभावी नियंत्रण होता है।
5 लीटर मट्ठे में , 1
किलो नीम के पत्ते व धतूरे के पत्ते डालकर, 10 दिन सड़ने दे। इसके बाद
मिश्रण को छानकर इल्लियों का नियंत्रण करें।
5 किलो नीम के पत्ते 3
लीटर पानी में डालकर उबाल ली तब आधा रह जावे तब उसे छानकर 150 लीटर पानी
में घोल तैयार करें। इस मिश्रण में 2 लीटर गौ-मूत्र मिलावें। अब यह मिश्रण
एक एकड़ के मान से फसल पर छिड़के।
1/2 किलो हरी मिर्च व लहसुन पीसकर 150 लीटर पानी में डालकर छान ले तथा एक एकड़ में इस घोल का छिड़काव करें।
मारूदाना, तुलसी (श्यामा) तथा गेदें के पौधे फसल के बीच में लगाने से इल्ली का नियंत्रण होता हैं।
टिन की बनी चकरी खेतों में लगाने से भी इल्लियां गिर जाती हैं।
दीमक नियंत्रण
मक्का के भुट्टे से
दाना निकलने के बाद, जो गिण्डीयॉ बचती है, उन्हे एक मिट्टी के घड़े में
इक्टठा करके घड़े को खेत में इस प्रकार गाढ़े कि घड़े का मुॅह जमीन से कुछ
बाहर निकला हो। घड़े के ऊपर कपड़ा बांध दे तथा उसमें पानी भर दें। कुछ
दिनाेंं में ही आप देखेगें कि घड़े में दीमक भर गई है। इसके उपरांत घड़े को
बाहर निकालकर गरम कर लें ताकि दीमक समाप्त हो जावे। इस प्रकार के घड़े को
खेत में 100-100 मीटर की दूरी पर गड़ाएॅ तथा करीब 5 बार गिण्डीयॉ बदलकर यह
क्रिया दोहराएं। खेत में दीमक समाप्त हो जावेगी।
सुपारी के आकार की
हींग एक कपड़े में लपेटकर तथा पत्थर में बांधकर खेत की ओर बहने वाली पानी की
नाली में रख दें। उससे दीमक तथा उगरा रोग नष्ट हो जावेगा।
उगरा नियंत्रण
लीटर मट्ठे में चने
के आकार के 3 हींग के टुकडे मिलाकर उससे चने का बीजोपचार कर तत्पश्चात बोनी
करें। सोयाबीन, उड़द, मूंग एवं मसूर के बीजों को अधिक गीला न करें।
400 ग्राम नीम के तेल
में 100 ग्राम कपड़े धोने वाला पावडर डालकर खूब फेंटे, फिर इस मिश्रण में
150 लीटर पानी डालकर घोल बनावें। यह एक एकड़ के लिए पर्याप्त है।
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